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मंगलवार, नवंबर 16, 2010

इक अक्षर को जिंदा करना था

इक अक्षर को जिंदा करना था
मानो पूरी कायनात से लड़ बैठा हूँ......

वो जो लड़ लड़ के हार बैठा है
उसको नर्म हाथो से पकड़ बैठा हूँ....
इक अक्षर को जिंदा करना था
मानो पूरी कायनात से लड़ बैठा हूँ......

होसलों की देहलीज़ नहीं
एक दीवार है जो बंद है कबसे
इन होसलों में ठहराव देख
कदमो को राह से जकड बैठा हूँ.....
इक अक्षर को जिंदा करना था
मानो पूरी कायनात से लड़ बैठा हूँ......

फिर से गिर गया जो था काँधे पे
उस पार गिरा या इस पार नहीं मालुम
चेतना सुप्त थी आशाएं गुम
व्यक्तित्व पे यकीं था नहीं मालुम..
अश्रु धार के नमकीन तिलिस्म को
चेहरे पे मोती सा जड़ बैठा हूँ.....
इक अक्षर को जिंदा करना था
मानो पूरी कायनात से लड़ बैठा हूँ......

इक अक्षर को जिंदा करना था
मानो पूरी कायनात से लड़ बैठा हूँ......

~बलदेव~

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