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शुक्रवार, मार्च 18, 2011

जब प्रीत बन गयी अनबुझ पहेरी

किसने देखा मीरा को,
किसने देखा राधा को,
कोई था जो हुआ करता था,
कोई था जो दिल को छुआ करता था,
कोई था....कोई था में क्यों हम रहें
कोई है से ही क्यों न सब कुछ कहें
उस जोगन को खुद से अलग कर लो,
इक नयी जोगन को खुद में भर लो,
प्यार को इक नया नाम दो,
लो आज ही उस प्यार को आगाज़ दो,
लो आज ही प्यार को बुला लो
लो आज ही प्यार से खुद को मिला लो...

श्याम इक बार राधा से जुदा जो हुआ,
फिर उसके बाद ना वो उसका हुआ..
क्यों राधा उस श्याम को ही याद करे
जो इक पल में ही उससे दूर हुआ...
राधा ने तो खुद को श्याम के संग जोड़ दिया
दुनिया को प्यार का इक नया नाम दिया
मगर फिर भी जुदाई तो थी नसीब में
के राधा तो फिर ना रही कभी भी करीब में...
के राधा तो फिर ना रही कभी भी करीब में...

लेकर अंखियों में चाहत
हम हर रोज़ फिरा करते हैं,
जब दरश की हो प्यासी अँखियाँ
उनमे बस नीर ही भरा करते हैं,
इत बैठूं, उत जाऊं,
कहीं भी मनवा ये चैन ना पाऊं,
काहे मैं पाती का कागद फैराऊं,
मैं काहे कलम हाथ में घुमाऊं..
जब प्रीत बन गयी अनबुझ पहेरी
फिर काहे का ऊधव,
फिर काहे की कोई सहेरी...

2 टिप्‍पणियां:

  1. प्रेम पगी सुंदर पंक्तियाँ..... बेहतरीन रचना

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  2. शुक्रिया डॉ मोनिका, प्यार को समझने के लिए खुद प्यार के रंग में रंगना पड़ता है और सिर्फ वोही प्यार में छिपे असीम आनंद को प्राप्त कर सकता है जो दूसरों को दिल में बिठाना जानता हो और खुद को इस काबिल बना ले के दुसरे खुद-बा-खुद ही उन्हें दिल में बिठा लें.. एक बार फिर से बहुत बहुत धन्यवाद.

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